Thursday, April 2, 2020

करुणामय ही पीड़ाओं का हल होता है

करुणामय ही पीड़ाओं का हल होता है 
उससे क्या आशा जो केवल विष बोता है

प्रश्न बहुत है पास तुम्हारे उत्तर का क्या
नींद बहुत है शूल भरे इस बिस्तर का क्या
हिंसक जलचर बहुत नदी में गहराई भी
छुए बिना जल प्यास बुझेगी नहीं कभी भी
मिल जाएंगे समाधान अभ्यासों में बल होता है

अतिसूक्ष्म ... विषकण, जीवन पर भारी है
ठहर गई गति अब विकास पर भय तारी है
हंसने लगे फूल निरापद चिड़िया गाती
कालचक्र की इस गति पर सहसा मुस्काती
जिनका नहीं आज उनका भी क्या कल होता है

ऊब चले हैं लोग बहुत अवकाश हुआ अब
ठहरा है जल काई का  आवास हुआ अब
दुखने लगे पांव सर आंखे  बैठे बैठे 
पत्थर भी थक गया बहुत दिन ऐंठ ऐठें
तिनकों का ही ऐसे में संम्बल होता है

महामना" जगदीश गुप्त

Saturday, October 27, 2018

अनमना है गगन और धरा मौन रै

अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

कर २ही है निर्जला राहीओं की देह
धूम्रध्वज लिए आवेग में पवन
धूलधूसरित आकाश हो गया
हुलस मलिन  है धूप में सुमन
भोर से प्रखर हो ग्ए दिनकर
याचित हुए , गुहा और विवर
ववंडरों के डर सहमीं गुमटियां
तरस रहे हैं बादलों को मन
सुलग उठे हैं विटपों के तन
खौल गया है धीर नीर का

लय ताल छोड़कर न्यायी दिगभ्रमित
पीट रहे हैं ढोल और मृदंग
गणमान्य और प्रवर अधिमान्य विप्रवर
नाच रहे हैं उन्मत्त हो अनंग /चढ़ा भंग
क्रंद मंद हो सिसकिया हुआ
अबोध बन रहे संस्थान और स्तंभ
रूठने लगा स्वभाव मौज का
छूटने लगा साहस समाज का
टूटने लगा पिचकारियों का दम
उड़ गया है रंग मुख से अबीर का

Thursday, August 9, 2018

प्रीत तुम्हारी गाते गाते

प्रीत तुम्हारी गाते गाते
गीतो का आगार हुआ
गाते गाते रूप तुम्हारा
मैं स्वतः श्रृंगार हुआ

कज्जल अपने उर लेते हैं
गहरे सरोवरो के तल
पिपासुओं के निमित्त प्रियवर
सतह सहेजें जल निर्मल
जीवन के दुर्गम पथ थे
सुविधा के जर्जर रथ थे
चंदन मन का संबल पाकर
मार्ग सहज निर्भार हुआ

कामनाओं के ववंडरों में
आंखों चुभते खंड सपन
राग मोह के लोभ दहकते
अभिमानों के ईर्ष्या वन
किंतु सौम्य शीतलता देती
सलिलातट सी सुवस पवन
संस्पर्शों का अमृत पाकर
मृदा रसज अवतार हुआ

अभिलाषा के ऊंचे अंबर
चातक मन की मौन घुटन
अभिव्यक्ति के सीमित अवसर
कीलित कलुषित वातायन
किंतु घटा में चन्द्रप्रभा सी
विखराती मृदुहास कुसुम
कोमलता का संबल पाकर
निर्जन अजर विहार हुआ

महामना

Saturday, August 4, 2018

देखता है समय सच को

देखता है समय सच को अचकचाकर
हंस रहे हैं झूठ सारे खिलखिलाकर

रातभर तरसे थे हम जिस अरूणिमा को
अरूण भी न ला सका उस लालिमा को
सिंहासनों पर आ विराजीं बदलियां
जयघोष कर गरजीं गिरीं फिर बिजलियां
डर गई सारी छतें , आवाज मिमियायी
हर स्वाभिमानी किरण लौटी तिलमिलाकर

भेड़िए निकले जिन्हें समझा गऊ था
चाटते थे वे जिसे ' अपना लहू था
आश्चर्य !( आह रे ) कैसे निरापद रह सके हम
पौ फटे आंखें फटीं थे गिद्ध हमदम
धिक इन्हें पोसा समझ कर  सर्वहारा
देखता ही रह गया मन डवडबाकर

इस दौड़ में रुकना औ मरना है बराबर
दिख रहा सच ' झूठ है लेकिन सरासर
छद्म युग है धर्म संस्थापन जटिल है
युक्ति का आश्रय करें शत्रु कुटिल है
सन्निकट सत्क्रांति  है धीरज न खोना
कल रोएगें ये ऊंट सारे बिलबिलाकर

जिन तेवरों से बात करनी थी उन्हें
वे अभी गिरवीं हैं सत्ता के चरण में
फस गए हैं पंरव गुड़ की ढेलियों में
३सलिए है दोगलापन आचरण में
वाह गजब के तीर हैं तरकश में उनके
छिन गई सत्ता तो लाएं हैं सजाकर

Wednesday, June 6, 2018

जिनकी दृष्टि समान होती है

जिनकी दृष्टि समान होती है
उनकी सृष्टि महान होती है
जिनके मन सध गई समता
उनकी व्यष्टि विवान होती है
मन की जब बात नहीं बनती
भौंह तन के कमान होती है

मठ पर चोरों का कब्जा है

मठ पर चोरों का कब्जा है
और ठगों की पहरेदारी
सभी देव नीलाम हो गए
ऐसी बोल रही मक्कारी

प्रामाणिकता ही अयोग्यता
कायरता ही अनुशासन है
सच कहते लकवा जिव्हा को
कालनेमि सत्ता पे भारी

लूट लिए विश्वास उन्होंने
भारी योग्य समझ कर जिनको
ऋषि संत सब सौंप गए थे
भांति - भांतिं की थाती सारी

वामन रूप धरे है  रावण
नितप्रति श्री अपहृत होती है
समरसता के ढोल बजाते
जातिवाद के बड़े पुजारी

कर्णद कुंभ हुए हैं मद में
परम्पराए शील खो रही
आर्तनाद सब शोर खा गया
पसर गई चहुं दिशि लाचारी

यद्यपि शुभ है शेष अभी भी
शौर्य और भक्ति शक्ति भी
वीर प्रसूता भारत माता
पुनः बनेगी दुष्ट संहारी

तड़प रही है विकल वेदना
जाग रही है किंतु चेतना
राम विभीषण हनुमत मिललें
मिट जाएगी सब बीमारी

जब भी कोई अपने मुख पर किरणें मलता है

जब भी कोई अपने मुख पर किरणें मलता है
अंधकार छाया हो पीछे- पीछे चलता है

कितना ही गठबंधन कर ले तमस हवा के साथ
दिया- हथेली साथ रहें तो उसकी कौन बिसात
जहां कहीं भी कीचड़ कचरे रोज पनपते हैं
हम उनकी ही छाती पे पंकज से खिलते है
माना अपना मन कठोर है नहीं पिघलता है
पर बाती के संघर्षों में यह घी सा जलता है

तू अंधियारों का अनुगामी मै सहचर सूरज का
तुझको अपने पाले करना,काम बड़े धीरज का
है मनुज वही,जो असाध्य को,संभव करता है
अपने बलिदानों से जगती प्राणवान करता है
माना मन है शीत शिला सा , न ही विकलता है
किंतु लोक की शिवता को यह पलपल गलता है

सच से परदा कर लोगे तुम ऐसी आस न थी
आज खुला सच' हममें तुममें वैसी रास न थी
ऐसे शिखरों का क्या जिस पर पांव न ठहरे 
वह प्रभुता क्या,जहां दंभ पाताका फहरे
अपनी कितनी भी ऊंचाई नहीं सफलता है
वही उच्च है जहां समष्टि-सेवाव्रत पलता है

हम अंधियारे के मुख पर नित सूरज मलते है
अंधकार ' छाया हो , आगे पीछे चलते हैं